अलौकिक शक्ति सम्पन्न महात्मा बनादास महाराज ।

–अंकित सिंह विश्वजीत,कृपापात्र महात्मा  बनादास, अयोध्या  द्वारा प्रेषित।


बाबा बनादास जी का जन्म  ग्राम अशोक पुर जिला गोण्डा में पौष शुक्ल पक्ष चतुर्थी विक्रम संवत 1877 तद्नुसार 28 दिसम्बर 1821 को एक बैस क्षत्रिय परिवार में हुआ था। और इनके परिजन रायबरेली बैसवारे के किसी गांव से आये थे, जो यहां आकर बस गए थे। इनके पिता जी का नाम गुरुदत्त सिंह था जो किसान थे खेती वगैरह मजे की थी लेकिन सिंचाई साधन न होने के कारण उस समयकाल में कोई भी किसान ज्यादा सरसब्ज नहीं हो पाता है इसी का शिकार गुरुदत्त सिंह भी थे। परिणाम स्वरूप बाबा बनादास जी को भी गरीबी का दंश झेलना पड़ा। जिसके फलस्वरूप आपकी शिक्षा दीक्षा ज्यादा अच्छी नहीं हो पाई। बस इतना ही था कि आप किताबें वगैरह पढ़ लिख लेते थे। और घर की स्थिति ज्यादा अच्छी न होने के कारण ही भिनगा राज्य बहराइच में लगभग सात वर्षों तक सेना में नौकरी किया था। इसके बाद घर पर आकर रहने लगे और इसके कुछ समय बाद ही इनका मात्र एक पुत्र जो लगभग ग्यारह वर्ष का था उसका आकस्मिक निधन हो गया और पुत्र के शव के साथ ही आप जब सरयू नदी के किनारे अयोध्या गये तो फिर वापस घर नहीं लौटे और वहीं के होकर रह गए। आरम्भ के दो वर्षों तक देशाटन पर निकल गये जिसमें काशी मथुरा आदि कई धर्म स्थलों पर घूमते हुए फिर अयोध्या वापस आ गए यहां चौदह साल तक रामघाट पर कुटी बनाकर रहने लगे थे वहीं इन्होंने कठोर तप करके कई सिद्धियां प्राप्त की।         

                                                      साधना पूरी होने पर इनको ईश्वर का साक्षात्कार हुआ इसके बाद विक्टोरिया पार्क से लगी हुई भूमि पर "भवहरण कुंज" नामक आश्रम बनाकर रहने लगे। पूज्य महात्मा बनादास के विषय में एक घटना लोगों ने यह भी बताई है कि - एक बार किसी पट्टीदार ने‌ इनकी सिद्धियों को सुनकर इनकी परीक्षा लेनी चाही और मध्य रात्रि में महाराज जी के आश्रम पर पहुँचा। बार-बार आवाज लगाने पर महात्मा जी ने दरवाजा खोला और उक्त व्यक्ति को अंदर ले गए। महात्मा जी ने उससे पूछा कि खाओगे? उसने कहा आपकी जो इच्छा खिला दीजिए। महात्मा जी ने कहा कि आप अपनी इच्छा बताइए। उसने कहा कि भरपेट जलेबी खाना चाहता हूँ। महात्मा जी ने कहा ठीक है बैठिए; जलेबी आ रही है। कुछ ही पल में एक आदमी एक थाल में दस किलो जलेबी लेकर पहुँचा और आवाज लगाई। महात्मा जी ने पुनः दरवाजा खोला तो उस आदमी ने देखा कि एक आदमी जलेबी का थाल लिए खड़ा है। उस आदमी ने बताया कि महाराज जी ने मैंने बहुत पहले मनौती माँगी थी; लेकिन ध्यान नहीं रहता था। आज अचानक याद आया और मैं आपके लिए यह जलेबी लेकर आया हूँ। वह आदमी जो परीक्षा लेने आया था सन्न रह गया और महात्मा जी के चरणों में शरणागत हो गया। सन 1892 ई में इसी स्थान पर ही इनका साकेत वास हुआ था। 



सन 1851 से लेकर सन 1892 तक इन्होंने छोटे बड़े चौंसठ गृंथों की रचना की जिसमे मुख्य रचनाएँ अर्जपत्रिका' (1851 ई.), 'नाम निरूपण' (1852 ई.), 'रामपंचाग' (1853 ई.), 'सुरसरि पंचरत्न', 'विवेक मुक्तावली', 'रामछटा', 'गरजपत्री', 'मोहिनी अष्टक' उभय प्रबोधक रामायण एवं विस्मरण संभार आदि हैं। बनादास जी ने 1851 ई. से 1892 ई. तक विस्तृत कविताकाल में जिन 64 ग्रंथों की रचना की थी। उन रचनाओं में निर्गुणपंथी, सूफ़ी तथा रीतिकालीन शैलियों की प्रयोग एक साथ ही मिलता है किंतु प्रतिपाद्य सबका रामभक्ति ही है। गोस्वामी तुलसीदास के बाद रचना शैलियों की विविधता, प्रबन्ध पटुता और काव्य-सौष्ठव के विचार से ये रामभक्ति शाखा के अन्यतम कवि ठहरते है। बनादास जी ने अपने किसी गृंथ में लिखा है कि

सुक सनकादि कीन यह पूजा।

नव जोगेस्वर भाव न दूजा।।

दत्तात्रे लोमस मन लावा।

कपिलदेव अति ही सुख पावा।।

महादेव का अति मन माना।

हनूमान को भाव न जाना।

सब संतन को यह अति भावा।

जा ते आवागमन मिटावा।

कबीर सूर गोसंई गावा।

ता में बनदास कुछ पावा।

जाते सकल शुभाशुभ छूटा।

अति कराल भव बंधन टूटा।।

लिखी सिखी नाहीं लिखी, निज अनुभव दृग देखि।

श्रुति पुरान सम्मत सदा, जनिहैं सन्त बिसेषि।।

उपरोक्त वर्णित चौपाई और दोहे से ऐसा प्रतीत होता है कि बाबा बनादास जी ने कबीर सूर तुलसी आदि रचनाएं पढ़कर अपने मन अनुसार ही गृंथों की रचना की है। चूंकि इनका साहित्य अभी प्रकाशित नहीं है इसलिए बहुत ज्यादा इनके बारे में किसी को जानकारी नहीं है लेकिन जब यह प्रकाशित होकर जन मानस के बीच आयेगा। तभी इनकी पूर्णरूपेण आंकलन हो सकेगा। लोग बताते हैं इनके आदर्श भरत थे।

अब तक इनके लिखे ग्रंथों में से केवल 'उभय प्रबोधक रामायण' और 'विस्मरणसम्हार' मुद्रित हुए हैं।

महात्मा बनादास जी के वंशजों में रघुराज सिंह ने सन 1905 मैं जूनियर हाई स्कूल पास किया और महात्मा बनादास जी के प्रचार प्रसार के लिए सर्वप्रथम प्रयास किया था श्री रघुराज सिंह की प्रेरणा से जन्म भूमि अशोकपुर में स्थित आश्रम में देवरहा बाबा ने बनादास जी की मूर्ति का अनावरण किया था।।                                                                                गुरूदत्त  के  पूत का,  बनासिंह  था नाम।

पुत्र मरण से हो बिरत, बसे अयोध्या धाम।

बसे अयोध्या  धाम, वर्ष जब बावन लागा।

कृपा कीन श्री राम, भाव कविता का जागा।

रचिके चौंसठ गृंथ, भाव सुचि भरो गत्त के।

चले  गये  सुरधाम, लाल थे  गुरूदत्त  के।।

उनकी सातंव पुस्त में, भें अंकित सिंह  नाम।

अपने वंशज के लिये, प्रयत्नशील अविराम।

प्रयत्नशील   अविराम, वंश के  गुण हैं गाते।

बनादास   की   बात,  बताते  नहीं   अघाते।

धन्य कर रहे नाम, नहीं चिन्ता कुछ धन की।

पौष शुक्ल की चोथि, याद करते हैं उनकी।।